स्वतंत्रता संग्राम में जैन

Jain Freedom Fighters

(जैन स्वतंत्रता सेनानी)

सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम् । 
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्रः ।।
- आचार्य पूज्यपाद, शान्तिभक्ति

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सर्वपक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान्  
- आचार्य सोमदेवसूरि, यशस्तिलकचम्पू

1. अमर शहीद लाला हुकुमचंद जैन (कानूनगो)

1857 का स्वातन्त्र्य समर भारतीय राजनैतिक इतिहास की अविस्मरणीय घटना है। यद्यपि इतिहास के कुछ ग्रन्थों में इसका वर्णन मात्र सिपाही विद्रोह या गदर के नाम से किया गया है, किन्तु यह अक्षरशः सत्य है कि भारतवर्ष की स्वतन्त्रता की नींव तभी पड़ चुकी थी। विदेशी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध ऐसा व्यापक एवं संगठित विद्रोह अभूतपूर्व था। इस समर में अंग्रेज छावनियों के भारतीय सैनिकों का ही नहीं, राजच्युत अथवा असन्तुष्ट अनेक राजा-महाराजाओं, बादशाह नवाबों, जमींदारों- ताल्लुकदारों का ही नहीं, सर्व साधारण जनता का भी सक्रिय सहयोग रहा है। विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने व विदेशी शासकों को देश से खदेड़ने का यह जबरदस्त अभियान था। इस समर में छावनियां नष्ट की गई, जेलखाने तोड़े गये, सैकड़ों छोटे-बड़े खूनी संघर्ष हुए, भयंकर रक्तपात हुआ, अनगिनत सैनिकों का संहार हुआ, अनेक माताओं की गोदें सूनी हो गई, अबलाओं का सिन्दूर पुछ गया। यद्यपि अनेक कारणों से यह समर सफल नहीं हो सका, पर आजादी के लिए तड़प का बीज-बपन इस समर में हो गया था।
इस स्वातन्त्र्य समर में हिन्दू, मुस्लिम, जैन, सिख आदि सभी जातियों व धर्मों के देशभक्तों ने अपना योगदान दिया। अंग्रेजी सरकार को जिस व्यक्ति के सन्दर्भ में थोड़ा सा भी यह ज्ञात हुआ कि इसका सम्बन्ध विद्रोह से है, उसे सरेआम फांसी पर लटका दिया गया। अनेक देशभक्तों को सरेआम कोड़े लगाये गये, तो अनेक के परिवार नष्ट कर दिये गये, सम्पत्तियां लूट ली गईं, पर ये देशभक्त झुके नहीं। आज भारतवर्ष की स्वतन्त्रता का महल इन्हीं देशभक्तों एवं अमर शहीदों के बलिदान पर खड़ा है।
लाला हुकुमचंद जैन का जन्म 1816 में हांसी (हिसार) हरियाणा के प्रसिद्ध कानूनगो परिवार में श्री दुनीचंद जैन के घर हुआ। आपका गोत्र गोयल और जाति अग्रवाल जैन थी। आपकी आरम्भिक शिक्षा हांसी में हुई। जन्मजात प्रतिभा के धनी हुकुमचन्द जी की फारसी और गणित में विशेष रुचि थी। इन विषयों पर आपने कई पुस्तकें भी लिखीं। अपनी शिक्षा एवं प्रतिभा के बल पर आपने मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के दरबार में उच्च पद प्राप्त कर लिया और बादशाह के साथ आपके बहुत अच्छे सम्बन्ध हो गये।
1841 में मुगल बादशाह ने आपको हांसी और करनाल जिले के इलाकों का कानूनगो एवम् प्रबन्धकर्ता नियुक्त किया। आप सात वर्ष तक मुगल बादशाह के दरबार में रहे, फिर इलाके के प्रबन्ध के लिए हांसी लौट आये। इस बीच अंग्रेजों ने हरियाणा प्रान्त को अपने अधीन कर लिया। हुकुमचंद जी ब्रिटिश शासन में कानूनगो बने रहे, पर आपकी भावनायें सदैव अंग्रेजों के विरुद्ध रहीं।
श्री जैन उच्च कोटि के दानी, उदार हृदय और परोपकारी थे। आपने गांवों में मन्दिरों, शिवालयों, कुओं व तालाबों का निर्माण कराया तथा टूटे हुए मंदिरों का जीर्णोद्धार भी कराया।
1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा तब लाला हुकुमचंद की देशप्रेम की भावना अंगड़ाई लेने लगी। दिल्ली में आयोजित देशभक्त नेताओं के उस सम्मेलन में, जिसमें तात्या टोपे भी उपस्थित थे, हुकुमचंद जी उपस्थित थे। बहादुरशाह जफर से उनके गहरे सम्बन्ध पहले ही थे, अतः आपने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने की पेशकश की। आपने उपस्थित नेताओं और बहादुरशाह जफर को विश्वास दिलाया कि 'वे इस स्वतंत्रता संग्राम में अपना तन-मन और धन सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हैं।' हुकुमचंद जी की इस घोषणा के उत्तर में मुगल बादशाह ने लाला हुकुमचंद को विश्वास दिलाया कि वे अपनी सेना, गोला-बारूद तथा हर तरह की युद्ध सामग्री सहायता स्वरूप पहुँचायेंगे। हुकुमचंद जी इस आश्वासन को लेकर हांसी आ गये।
हांसी पहुंचते ही आपने देशभक्त वीरों को एकत्रित किया और जब अंग्रेजों की सेना हांसी होकर दिल्ली पर धावा बोलने जा रही थी, तब उस पर हमला किया और उसे भारी हानि पहुंचाई। आपके और आपके साथियों के पास जो युद्ध सामग्री थी वह अत्यन्त थोड़ी थी, हथियार भी साधारण किस्म के थे, दुर्भाग्य से जिस बादशाही सहायता का भरोसा आप किये बैठे थे, वह भी नहीं पहुँची, फिर भी. आपके नेतृत्व में को वीरतापूर्ण संघर्ष हुआ वह एक मिशाल है। इस घटना से आप हतोत्साहित नहीं हुए, अपितु अंग्रेजों को परास्त करने के उपाय खोजने लगे।
लाला हुकुमचंद व उनके साथी मिर्जा मुनीर वेग ने गुप्त रूप से एक पत्र फारसी भाषा में मुगल सम्राट् को लिखा (कहा जाता है कि यह पत्र खून से लिखा गया था), जिसमें उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में पूर्ण सहायता का विश्वास दिलाया, साथ ही अंग्रेजों के विरुद्ध अपने घृणा के भाव व्यक्त किये थे और अपने लिए युद्ध-सामग्री की मांग की थी। लाला हुकुमचंद मुगल सम्राट् के उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए हांसी का प्रबन्ध स्वयं सम्हालने लगे। किन्तु दिल्ली से पत्र का उत्तर ही नहीं आया। इसी बीच दिल्ली पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया और मुगल सम्राट् गिरफ्तार कर लिये गये।
15 नवम्बर 1857 को बादशाह की व्यक्तिगत फाइलों की जांच के दौरान लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग के हस्ताक्षरों वाला वह पत्र अंग्रेजों के हाथ लग गया। यह पत्र दिल्ली के कमिश्नर श्री सी०एस० साँडर्स ने हिसार के कमिश्नर श्री नव कार्टलैन्ड को भेज दिया और लिखा कि 'इनके विरुद्ध शोध ही कठोर कार्यवाही की जाये।'
पत्र प्राप्त होते ही कलेक्टर एक सैनिक दस्ते को लेकर हांसी पहुंचे और हुकुमचंद तथा मिर्जा मुनीर बेग के मकानों पर छापे मारे गये। दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया, साथ में हुकुमचंद जी के 13 वर्षीय

भतीजे फकीर चंद को भी गिरफ्तार कर लिया गया। हिसार लाकर इन पर मुकदमा चला। एक सरसरी और दिखावटी कार्यवाही के पश्चात् 18 जनवरी 1858 को हिसार के मजिस्ट्रेट जॉन एकिंसन ने लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को फांसी की सजा सुना दी। फकीर चंद को मुक्त कर दिया गया। 19 जनवरी 1858 को लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर वेग को लाला हुकुमचंद के मकान के सामने (जहाँ नगर पालिका हांसी ने 22-1-1961 को इस शहीद की पावन स्मृति में 'अमर शहीद हुकुमचंद पार्क' की स्थापना की है।) फांसी दे दी गई। क्रूरता की पराकाष्ठा तो तब हुई जब लाला जी के भतीजे फकीर चंद को, जिसे अदालत ने बरी कर दिया था, जबरदस्ती पकड़कर फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया। भारतवर्ष के इतिहास का वह क्रूरतम अध्याय था। अंग्रेजों की क्रोधाग्नि इतने से भी शान्त नहीं हुई। इनके रिश्तेदारों को इनके शव अन्तिम संस्कार हेतु नहीं दिये गये, अपितु उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए लाला हुकुमचंद के शव को जैनधर्म के विरुद्ध भंगियों द्वारा दफनाया गया और मिर्जा मुनीर बेग के शव को मुस्लिम परम्पराओं के विरुद्ध जला दिया गया। शहीद होने के समय हुकुमचंद जी अपने दो पुत्रों को छोड़ गये थे जिनमें न्यामत सिंह की आयु आठ वर्ष और सुगनचंद की आयु मात्र उन्नीस दिन थी। आपकी धर्मपत्नी दोनों बच्चों को लेकर आश्रय के लिए गुप्त रूप से किसी सम्बन्धी के यहाँ चलीं गईं। प्रशासन उन्हें खोजता रहा पर सफल नहीं हुआ। 
लाला जी के बाद उनकी सम्पत्ति कौड़ियों के भाव नीलाम कर दी गई। उनकी सम्पन्नता का परिचय इसी से मिल जाता है कि लगभग 9000 एकड़ जमीन उनके पास थी। अन्य वस्तुओं में लगभग 400 तोले सोना, 3300 तोला चांदी, 1300 चांदी के सिक्के, 107 मोहरें आदि
हरियाणा के प्रसिद्ध कवि श्री उदय भानु 'हंस' ने ठीक ही लिखा है-

'हांसी की सड़क विशाल थी, हो गई लहू से लाल थी। 
यह नर-पिशाच का काम था, बर्बरता का परिणाम था।
श्री हुकुमचन्द रणवीर था, संग मिर्जा मुनीर बेग था।
दोनों स्वदेश के भक्त थे, जनसेवा में अनुरक्त थे। 
कोल्हु में पिसवाये गये, टिकटी पर लटकाये गये। 
हिन्दू को दफनाया गया, मुस्लिम शव झुलसाया गया।
कितने जन पकड़े घेरकर, फिर बड़ पीपल के पेड़ पर। 
कीलों से टँके गरीब थे, ईसा के नये सलीब थे।'

2. अमर शहीद फकीरचंद जैन

भारतवर्ष के स्वातन्त्र्य समर में हजारों निरपराध मारे गये, और यदि सच कहा जाये तो सारे निरपराध ही मारे गये, आखिर अपनी आजादी की मांग करना कोई अपराध तो नहीं है। ऐसे ही निरपराधि यों में थे 13 वर्षीय अमर शहीद फकीरचंद जैन। फकीरचंद अमर शहीद लाला हुकुमचंद जैन के भतीजे थे। हुकुमचंद जैन ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 
हुकुमचंद जैन हांसी के कानूनगो थे। बहादुरशाह जफर से उनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे, उनके दरबार में श्री जैन सात वर्ष रहे फिर हांसी (हरियाणा) के कानूनगो होकर आप अपने गृहनगर हांसी लौट आये। आपने मिर्जा मुनीर वेग के साथ एक पत्र बहादुरशाह जफर को लिखा, जिसमें अंग्रेजों के प्रति घृणा और उनके विरुद्ध संघर्ष में पूर्ण सहायता का विश्वास बहादुरशाह जफर को दिलाया था। जब दिल्ली पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया तब बहादुरशाह जफर की फाइलों में यह पत्र अंग्रेजों के हाथ लग गया। तत्काल हुकुमचंद जी को गिरफ्तार कर लिया गया, साथ में उनके भतीजे फकीरचंद को भी। 18 जनवरी 1858 को हिसार के मजिस्ट्रेट ने लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर वेग को फांसी की सजा सुना दी। फकीर चंद को मुक्त कर दिया गया। 
19 जनवरी 1858 को हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को हांसी में लाला हुकुमचंद के मकान के सामने फांसी दे दी गई। 13 वर्षीय फकीरचंद इस दृश्य को भारी जनता के साथ ही खड़े-खड़े देख रहे थे, पर अचानक यह क्या हुआ ? गोराशाही ने बिना किसी अपराध के, बिना किसी वारन्ट के उन्हें पकड़ा और वहीं फांसी पर लटका दिया। इस प्रकार अल्पवय में ही यह आजादी का दीवाना शहीद हो गया।3. अमर शहीद अमरचंद बांठिया

भारतवर्ष का प्रथम सशस्त्र स्वाधीनता संग्राम 1857 ई० में प्रारम्भ हुआ था। इसे स्वाधीनता संग्राम की आधारशिला कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस संग्राम में जहाँ महारानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, मंगल पांडे आदि शहीदों ने अपनी कुर्बानी देकर आजादी का मार्ग प्रशस्त किया, वहीं सहस्रों रईसों और साहूकारों ने अपनी तिजोरियों के मुंह खोलकर संग्राम को दृढता प्रदान की। तत्कालीन ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष अमर शहीद अमरचंद बांठिया ऐसे हो देशभक्त महापुरुषों में से थे, जिन्होंने 1857 के महामसर में जूझ रहे क्रान्तिवीरों को संकट के समय आर्थिक सहायता देकर मुक्ति संघर्ष के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया।
अमरचंद बांठिया के पूर्वज बाठिया गोत्र के आदि पुरुष श्री जगदेव पंवार (परमार) क्षत्रिय ने 9-10वीं शताब्दी (एक अन्य मतानुसार जगदेव के पुत्र या पौत्र माधव देव माधवदास ने 12वीं शताब्दी) में जैनाचार्य भावदेव सूरि से प्रबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था और ओसवाल जाति में शामिल हुए थे। कुछ इतिहासकार विक्रम की 12 वीं शताब्दी में रणथम्भौर के राजा लालसिंह पंवार के पुत्रों द्वारा जैनाचार्य विजय वल्लभ सूरि से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार कर लेने से उनके ज्येष्ठ पुत्र वंठ से बाठिया गोत्र की उत्पत्ति मानते हैं। कुछ इतिहासकार माधवदेव द्वारा दानवीरता की अनुकरणीय परम्परा का श्रीगणेश करने के कारण (धनादि को बांटने के कारण) वॉटिया-बाठिया उपनाम की प्रसिद्धि मानते हैं। स्पष्ट है कि अमरचंद जी को दानवीरता का गुण जन्मजात ही मिला था। अमरचंद बांठिया का परिवार व्यापार व्यवसाय हेतु सन् 1835 (वि०सं० 1892) में फलवृद्धि (फलौदी) में भूमि से प्रकट हुई चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा के चल समारोह में अनेक संघपतियों के परिवार के साथ बीकानेर से ग्वालियर आया और यहीं बस गया। प्रतिमा की प्रतिष्ठा ग्वालियर के हृदय स्थल सर्राफा बाजार के शिखरवन्द जिनालय में संवत् 1893 में हुई थी।
अमरचंद के दादा का नाम खुशालचंद एवं पिता का नाम अबीरचंद था। अमरचंद अपने सात भाइयों (श्री जालमसिंह, सालमसिंह, ज्ञानचंद, खूबचंद, सवलसिंह, मानसिंह, अमरचंद) में सबसे छोटे थे।
अमरचंद बाठिया में धर्मनिष्ठा, दानशीलता, सेवाभावना, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता आदि गुण जन्मजात थे। यही कारण था कि सिन्धिया राज्य के पोद्दार श्री वृद्धिचंद संचेती, जो जैन समाज के अध्यक्ष भी थे, ने अमरचंद को ग्वालियर राज्य के प्रधान राजकोष गंगाजली के कोषालय पर सदर मुनीम (प्रधान कोषाध्यक्ष) बनवा दिया। उस समय सिन्धिया नरेश 'मोती वाले राजा' के नाम से जाने जाते थे। 'गंगाजली' में अटूट धन संचय था, जिसका अनुमान स्वयं सिंधिया नरेशों को भी नहीं था। विपुल धनराशि से भरे इस खजाने पर चौवीसों घण्टे सशस्त्र पुलिस बल का कड़ा पहरा रहता था। कहा जाता है कि ग्वालियर राजघराने में उन दिनों पीढियों से यह आन चली आ रही थी कि न तो कोई राजा अपने राजकोष को सम्पत्ति को देख ही सकता था और न उसमें से कुछ निकाल ही सकता था, अतः गंगाजली की सदैव वृद्धि होती रहती थी। इस अकूत धन संचय को कोषाध्यक्ष के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था।
अमरचंद बांठिया इस खजाने के रक्षक ही नहीं ज्ञाता भी थे, वे चाहते तो अपने लिए मनचाही रत्न राशियाँ निकालकर कभी भी धनकुबेर बन सकते थे। पर बांठिया जी तो जैन धर्म के पक्के अनुयायी थे, जो राजकोष का एक पैसा भी अपने उपयोग में लाना घोर पाप समझते थे।
बाठिया जी की दैनिक घणे व नियम थी। प्रातः उठकर जिनेन्द्र देव को अर्चना और यदि कोई मुनि/साधक विराजमान हों तो उनके उपदेश सुनना, समय पर कोषालय जाना, सूर्यास्त से पूर्व भोजन और रात्रि नौ बजे शयन उनके यान्त्रिक जीवन के अंग थे।
'गंगाजली' के खजांची पद को सुशोभित करने के कारण बाठिया जी का आत्मीय परिचय बड़े-बड़े राज्याधिकारियों से हो जाना स्वाभाविक ही था। सेना के अनेक अधिकारियों का आवागमन कोषालय में प्रायः होता रहता था। बांठिया जी के सरल स्वभाव और सादगी ने सबको अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। चर्चा-प्रचर्चा में अंग्रेजों द्वारा भारतवासियों पर किये जा रहे अत्याचारों की भी चर्चा होती थी। एक दिन एक सेनाधिकारी ने कहा कि 'आपको भी भारत माँ को दासता से मुक्त कराने के लिए हथियार उठा लेना चाहिए।' बाठिया जी ने कहा- भाई अपनी शारीरिक विषमताओं के कारण में हथियार तो नहीं उठा सकता पर समय आने परऐसा काम करूंगा, जिससे क्रांति के पुजारियों को शक्ति मिलेगी और उनके हौसले बुलन्द हो जावेंगे।'
ध्यातव्य है कि अंग्रेजों के विरुद्ध जहाँ कहीं भी युद्ध छिड़ता था, वे भारतीय सैनिकों को ही सर्वप्रथम युद्ध की आग में झोंक देते थे। एक वयोवृद्ध संन्यासी ने अमरचंद बांठिया से चर्चा में 1857 के पूर्व की एक घटना सुनाते हुए कहा कि '700 बंगाली सैनिकों की एक रेजीमेन्ट को अंग्रेज अफसरों ने इसलिए गोलियों से भून दिया था, कि उन्होंने बैलों पर चढ़कर जाने से मना कर दिया था।' ज्ञातव्य है कि भारतीय संस्कृति में गाय हमारी माता है और उसके पुत्र बैल पर चढ़कर जाना पाप माना जाता है। सैनिकों ने इसी कारण बैल की पीठ पर बैठने से मना कर दिया था। यह भी ध्यातव्य है कि गाय/बैल की चर्बी लगे कारतूस को मुंह से खोलने के लिए मना करने पर हजारों निरपराध सैनिकों को अंग्रेज अधिकारियों द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया था।
ऐसी ही अनेक घटनाओं को सुन-सुनकर बांठिया जी का हृदय भी देश की आजादी के लिए तड़फडाने लगा। इधर मुनिराज के प्रवचन में भी उन्होंने एक दिन सुना कि 'जो दूसरों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे, उसी का जन्म सार्थक है, वह मरणोपरान्त अमर रह सकता है।' यह सुनकर बांठिया जी का निश्चय दृढ से दृढतर और दृढतर से दृढतम हो गया। उन्होंने तय किया कि मातृभूमि की रक्षा के लिए मुझे जो भी समर्पित करना पड़े, करूंगा। यह अवसर शीघ्र ही उनके सामने आ गया।
1857 की क्रान्ति के समय महारानी लक्ष्मीबाई उनके सेनानायक राव साहब और तात्या टोपे आरि कान्तिवीर ग्वालियर के रणक्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध डटे हुए थे, परन्तु लक्ष्मीबाई के सैनिकों और ग्वालिया के विद्रोही सैनिकों को कई माह से वेतन नहीं मिला था, न ही राशन-पानी का समुचित प्रवन्ध हो सका था। तब बांठिया जी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए क्रान्तिकारियों की मदद की और ग्वालियर क राजकोष लक्ष्मीबाई के संकेत पर विद्रोहियों के हवाले कर दिया।
ग्वालियर राज्य से सम्बन्धित 1857 के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, राजकीय अभिलेखागार, भोपाल आदि में उपलब्ध हैं। डॉ० जगदीश प्रसाद शर्मा, भारतीय इतिहास अनुसंधार परिषद, नई दिल्ली ने इन दस्तावेजों और अनेक सरकारी रिकाडों के आधार पर विस्तृत विवरण 'अमर शहीद : अमरचंद बांठिया' पुस्तक में प्रकाशित किया है, जिसके अनुसार 1857 में क्रान्तिकारी सेना ज अंग्रेजी सत्ता को देश से उखाड़ फेंकने हेतु कटिबद्ध होकर ग्वालियर पहुँची थी, राशन पानी के अभाव में उसको स्थिति बढ़ी ही दयनीय हो रही थी। सेनाओं को महीनों से वेतन प्राप्त नहीं हुआ था। 2 जून 1858 को राव साहब ने अमरचंद बांठिया को कहा कि उन्हें सैनिकों का वेतन आदि भुगतान करना है, क्या वे इसमें सहयोग करेंगें अथवा नहीं ? (ग्वालियर रेजीडेंसी फाइल, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली) तत्कालीन परिस्थितियों में राजकीय कोषागार के अध्यक्ष अमरचंद बांठिया का निर्णय एक महत्त्वपूर्ण निर्णय था. उन्होंने वीरांगना लक्ष्मीबाई की क्रान्तिकारी सेनाओं के सहायतार्थ एक ऐसा साहसिक निर्णय लिया जिसका सीधा सा अर्थ उनके अपने जीवन की आहुति से था। अमरचंद बाठिया ने राव साहब के साथ स्वेच्छापूर्वक सहयोग किया तथा राव साहब प्रशासनिक आवश्यकताओं को पूर्ति हेतु ग्वालियर के राजकीय कोषागार से समूची धनराशि प्राप्त करने में सफल हो सके। सेन्ट्रल इण्डिया एजेंसी आफिस में ग्वालिया रेजीडेंसी को एक फाइल में उपलब्ध विवरण के अनुसार 15 जून 1858 के दिन राव साहब राजमहल गये तथा अमरचंद बांठिया से 'गंगाजली' कोष की चाबियां लेकर उसका दृश्यावलोकन किया। तत्पश्चात् दूसरे दिन जब राव साहब बड़े सबेरे ही राजमहल पहुँचे तो अमरचंद उनकी अगवानी के लिए मौजूद थे। गंगाजली कोष से धनराशि लेकर क्रान्तिकारी सैनिकों को 5-5 माह का वेतन वितरित किया गया।'
महारानी बैजाबाई की सेनाओं के सन्दर्भ में भी ऐसा ही एक विवरण मिलता है। जब नरवर में वैजाबाई की फौज संकट की स्थिति में थी, तब उनके फौजी भी ग्वालियर आकर अपने-अपने घोड़े तथा 5 महीने की पगार लेकर लौट गये। इस प्रकार बांठिया जी के सहयोग से संकट ग्रस्त फौजों ने राहत की सांस ली। अमरचंद बांठिया से प्राप्त धनराशि से बाकी सैनिकों को भी उनका वेतन दे दिया गया (ग्वालियर रेजीडेंसी फाइल, 1261, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली)। 'हिस्ट्री ऑफ दी इण्डिया म्यूटिनी,' भाग-2 के अनुसार भी अमरचंद बाठिया के कारण ही क्रान्तिकारी नेता अपनी सेनाओं को पगार तथा ग्रेच्युटी के भुगतान के रूप में पुरस्कृत कर सके थे। (डा० जगदीश प्रसाद शर्मा का उक्त लेख)।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 1857 की क्रान्ति के समय यदि अमरचंद बांठिया ने क्रान्तिवीरों की इस प्रकार आर्थिक सहायता न की होती, तो उन वीरों के सामने कैसी स्थिति उत्पन्न होती, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। क्रान्तिकारों सेनाओं को काफी समय से वेतन नहीं मिला था, उनके राशन-पानी की भी व्यवस्था नहीं हो रही थी। इस कारण निश्चय ही क्रान्तिकारियों के संघर्ष में क्षमता, साहस और उत्साहकी कमी आती और लक्ष्मीबाई, राव साहब व तात्या टोपे को संघर्ष जारी रखना कठिन पड़ जाता। यद्यपि बांठिया जी के साहसिक निर्णय के पीछे उनकी अदम्य देशभक्ति की भावना छिपी हुई थी, परन्तु अंग्रेजी शब्दकोष में तो इसका अर्थ था "देशद्रोह" या "राजद्रोह" और उसका प्रतिफल था "सजा-ए-मौत"।
अमरचंद बांठिया से प्राप्त इस सहायता से क्रान्तिकारियों के हौसले बुलंद हो गये और उन्होंने अंग्रेजी सेनाओं के दाँत खट्टे कर दिये और ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। बौखलाये हुए ह्यूरोज ने चारों ओर से ग्वालियर पर आक्रमण की योजना बनाई।
योजनानुसार यूरोज ने 16 जून को मोरार छावनी पर पूरी शक्ति से आक्रमण किया। 17 जून को ब्रिगेडियर स्मिथ से राव साहब व तात्या टोपे का कड़ा मुकाबला हुआ। लक्ष्मीबाई इस समय आगरा की तरफ से आये सैनिकों से मोर्चा ले रही थीं। दूसरे दिन स्मिथ ने पूरी तैयारी से फिर आक्रमण किया। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी दो सहायक सहेलियों के साथ पुरुषों को वेश भूषा में आकर सेना की कमान संभाली। युद्ध निर्णायक हुआ, जिसमें रानी को संगीन गोली एवं तलवार से घाव लगे तथा उनकी सहेली की भी गोली से मृत्यु हो गयी। यद्यपि आक्रमणकर्ताओं को भी रानी के द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया, किन्तु घावों से वे मूच्छित हो गई। साथियों द्वारा उन्हें पास ही बावा गंगादास के बगीचे में ले जाया गया, जहाँ वे वीरगति को प्राप्त हुई। शीघ्र ही उनका तथा सहेली का दाह संस्कार कर दिया गया।
लक्ष्मीबाई के इस गौरवमय ऐतिहासिक बलिदान के चार दिन बाद ही 22 जून 1858 को ग्वालियर में ही राजद्रोह के अपराध में न्याय का ढोंग रचकर लश्कर के भीड़ भरे सर्राफा बाजार में ब्रिगेडियर नैपियर द्वारा नीम के पेड़ से लटकाकर अमरचंद बालिया को फाँसी दे दी गई।
बांठिया जी की फांसी का विवरण ग्वालियर राज्य के हिस्टोरिकल रिकार्ड में उपलब्ध दस्तावेज के आधार पर इस प्रकार है- 'जिन लोगों को कठोर दंड दिया गया उनमें से एक था सिन्धिया का खजांची अमरचंद बांठिया, जिसने विद्रोहियों को खजाना सौंप दिया था। बांठिया को सर्राफा बाजार में नीम के पेड़ से टाँगकर फाँसी दी गई और एक कटोर चेतावनी के रूप में उसका शरीर बहुत दिनों (तीन दिन) तक वहीं लटकाये रखा गया।'
4. अमर शहीद मोतीचंद शाह

भारतीय स्वातन्त्र्य समर का मध्यकाल था वह, उन दिनों पेड़ों' और 'इंकलाब जिन्दाबाद' जैसे नारे तो दूर 'वन्दे मातरम्' जैसा सात्विक और स्वदेश पूजा को भावना के प्रतीक शब्द का उच्वारण भी बड़े जीवट की बात समझी जाती थी। जो नेता सार्वजनिक मंचों से 'औपनिवेशिक स्वराज्य' की माँग रखते थे, उन्हें गर्म दल का समझा जाता था और उनसे किसी प्रकार का सम्पर्क रखना भी खतरनाक बात समझी जाती थी।
ऐसे समय में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री अर्जुन लाल सेठी अपनी जयपुर राज्य की पन्द्रह सौ रुपये मासिक को नौकरी छोड़कर क्रान्ति-यज्ञ में कूद पड़े। उन्होंने जयपुर में वर्धमान विद्यालय की स्थापना की। कहने को तो यह धार्मिक शिक्षा का केन्द्र था किन्तु वहाँ क्रान्तिकारी ही पैदा किये जाते थे। 'जिस विद्यालय का संस्थापक स्वयं क्रान्तिकारी हो उस विद्यालय को क्रान्ति की ज्वाला भड़काने से कैसे रोका जा सकता है।'
सेठी जी एक बार 'दक्षिण महाराष्ट्र जैन सभा' के अधिवेशन में मुख्य वक्ता के रूप में महाराष्ट्र के सांगली शहर गये। वहाँ उनकी भेंट दो तरुणों से हुई। एक थे श्री देवचन्द्र, जो बाद में दिगम्बर जैन समाज के बहुत बड़े आचार्य, आचार्य समन्तभद्र के नाम से विख्यात हुए और जिन्होंने महाराष्ट्र में अनेक शिक्षण संस्थाओं को स्थापना की। दूसरे थे अमर शहीद मोतीचंद शाह।
हुतात्मा मोतीचंद का जन्म 1890 में सोलापूर (महाराष्ट्र) जिले के करकंब ग्राम में सेठ पदमसी शाह के घर हुआ। माँ का नाम गंगू बाई था। सेठ पदमसी अत्यन्त निर्धन होते हुए भी संतोष-वृत्ति के धनी थे। वे न्याय से आजीविका कमाने तथा दयालु अन्तःकरण वाले सीधे-साधे छोटे से व्यवसायी थे। बालक की आँखों में मोती सी चमक देखकर ही माता ने बालक का नाम मोतीचंद रखा। परिवार को यह खुशी अधिक दिन तक स्थायी नहीं रह सकी। अल्पावस्था में ही मोतीचंद पितृच्छाया-विहीन हो गये। फलतः मामा और मौसी के घर उनका लालन-पालन हुआ। मराठी की चौथी कक्षा तक अध्ययन करने के बाद पेट भरने के लिए उन्हें किसी पुरानी मिल में मजदूरी का काम करना पड़ा, पर ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी ज्ञान की प्यास जागृत रही, कुछ-कुछ अध्ययन वे करते ही रहे। व्यायाम, तैरना, लाठी चलाना आदि के साथ-साथ देशभक्तों के चरित्रों को पढ़ने का उन्हें विशेष शौक था। देश की क्रान्ति से सम्बन्धित अनेक गीत-कवितायें उन्हें मुखाग्र थीं।
इसी बीच दुधनी से पढ़ाई के लिए सोलापूर आकर रह रहे बालक देवचन्द्र से मोतीचंद की मुलाकात हो गई। मुलाकात मित्रता और मित्रता प्रगाढ़‌ता में परिणत हुई। इस समय महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक द्वारा प्रारम्भ किये गये 'स्वदेशी आन्दोलन' का बहुत बोलबाला था। जन-सामान्य, विशेषतः युवा मन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा था। जगह-जगह सभायें होती थीं, जिनमें स्वतन्त्र भारत की घोषणा और 'वन्दे मातरम्' का जयघोष होता था।
बालक मोतीचंद और देवबंद इन समारोहों में अक्सर जाया करते थे। इन्हीं दिनों उनकी मुलाकात एक तीसरे साथी श्री रावजी देवचंद से हुई। तीनों ने मिलकर 'जैन बालोत्तेजक समाज' की स्थापना की और शुक्रवार पीठ के बड़े मंदिर के पीछे देहलान में बालकों के इकट्ठा होने का स्थान निश्चित हुआ। हरिभाई देवकरण और उनके भाई जीवराज जी भी इसमें मिल गये। धीरे-धीरे चालीस-पचास विद्यार्थियों का संगठन बन गया।
आपस में पुस्तकों के आदान-प्रदान व साप्ताहिक सभाओं आदि से विद्यार्थियों का उड़ता गया। मोतीचंद अपनी वाक्पटुता, निर्भीकता और गंभीर गर्जना के कारण अनायास ही इनके नेता बन गये। वे विद्यार्थियों के बीच देश-विदेश में घटने वाली घटनाओं और आंदोलनों के बारे में बताते थे। सालीचंद और देवचंद अकेले में बैठकर आंदोलन के बारे में सोचते थे। इनके बैठने के स्थान श्री कस्तूरचंद बोरामणीकर तथा कभी-कभी रावजी देवचंद के घर हुआ करते थे। विदेशी-वस्त्रों का उपयोग नहीं करना, विदेशी शक्कर नहीं खाना आदि प्रतिज्ञायें ये लोग किया करते थे। सोलापूर की देखा-देखी अन्य स्थानों पर भी 'जैन बालोतेजक समाज' की स्थापना हुई।
1906 के आसपास लोकमान्य तिलक स्वदेशी का प्रचार करने के लिए सोलापूर आये। एक स्वयं सेवक के नाते मोतीचंद उनसे मिले और इक‌ट्ठी की गयी कमाई स्वदेशी प्रचार के लिए तिलक जो को समर्पित कर दी, साथ ही अपने 'बालोत्तेजक समाज' की स्थापना की जानकारी तिलक जी को दी। इसी समय तिलक जी के कर कमलों से मैकेनिक थियेटर में 'बालोतेजक समाज' की विधिवत् स्थापना हुई।
मोतीचंद, देवचंद और उनके अधिकांश साथियों का जन्म जैनकुल में हुआ था। पारिवारिक संस्कार जैन धर्म से आप्लावित थे। भोगों के प्रति विरक्ति स्वाभाविक ही थी। एक दिन मोतीचंद ने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेने का विचार अपने मन में किया और अपने लंगोटिया यार देवचंद को बताया। 'जीवन की साधना के बीच ब्राह्मचर्य ही उत्तम साधना है।' इसका विश्वास मोतीचंद से पहले देवचंद को हो चुका था, अतः उन्होंने मोतीचंद के विचारों का अन्तःकरण से स्वागत किया और कुन्धलगिरि जाकर बाल ब्रह्मचारी देशभूषण, कुलभूषण भगवान् के चरणों में एक-दूसरे की साक्षी पूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया।
1910 के आसपास रावजी देवचंद मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर शिक्षा प्राप्ति हेतु बम्बई के विल्सन कॉलेज में चले गये। बाद में उन्होंनें फर्ग्यूसन कॉलेज, पूना में शिक्षा प्राप्त की। मोतीचंद ने अपने ज्ञानार्जन को हवस दिन-रात किताबें पढ़कर ही पूरी की। इसी बीच 'दक्षिण महाराष्ट्र जैन सभा', सांगली के अधि वेशन का समाचार मोतीचंद ने पढ़ा और जाना कि प्रमुख व्यक्ति के रूप में जयपुर के पंडित अर्जुन लाल सेठी आ रहे हैं। सभा का अधिवेशन सोलापुर के श्री हीराचंद अमीचंद गाँधी की अध्यक्षता में होने वाला था। सेठी जी के बारे में उन दिनों बड़ी ख्याति फैल चुकी थी कि वे बी०ए० तक लौकिक शिक्षा प्राप्त अत्यन्त बुद्धिमान्, प्रतिभासम्पन्न, ओजस्वी वक्ता, लेखक, पत्रकार, अर्थसम्पन्न, धार्मिक ज्ञान प्राप्त, जैन शिक्षा प्रचार समिति नामक शिक्षण संस्था तथा बोर्डिंग चलाने वाले व्यक्ति हैं। उनसे मिलने की अभिलाषा लिये मोतीचंद और देवचंद सांगली अधिवेशन में उपस्थित हुए। सेठी जी का समाज और राष्ट्र-सेवा की भावना से ओत-प्रोत व्याख्यान सुनकर दोनों तरुणों ने विचार किया कि हमारी आशा अपेक्षायें इनके पास रहकर पूर्ण हो सकती हैं। दोनों ने अपने विचार सेठी जी को बताये, सेठी जी ने जयपुर आने को कहा।
सब लोग एक साथ जयपुर पहुँचने की अपेक्षा धीरे-धीरे पहुँचे, ऐसा विचार कर तय हुआ कि पहिले देवचंद और माणिकचंद पहुँचे, बाद में मोतीचंद अन्य साथियों के साथ पहुँचेंगे। योजनानुसार तीनों जयपुर पहुँचे, साथ में श्री बालचंद शहा आदि भी थे। जयपुर की उक्त संस्था में कुछ राजपूत विद्यार्थी भी थे। राजस्थान के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी केशरी सिंह बारहठ के दो तेजस्वी बालक प्रताप सिंह एवं जोरावर सिंह भी वहाँ पढ़ते थे।
इसी बीच सेठी जी की मुलाकात पं० विष्णुदत्त शर्मा से हुई। शर्मा जी स्थान-स्थान पर पहुंवकर सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध व्याख्यान देने वाले एक सीधे-साधे ब्राह्मण उपदेशक जान पड़ते थे, किन्तु वास्तव में उनका कार्य था देश के स्वाधीनता युद्ध के लिए सैनिकों की भरती करना। अपने इस कार्य की पूर्ति के लिए शर्मा जी भिन्न-भिन्न स्कूलों/कालेजों और गुरुकुलों/पाठशालाओं में घूमा करते थे। इन स्थानों पर उन्हें जो भी ऐसा युवक दिखाई देता, जिसके नेत्रों में दीप्ति और मुख पर दृढ़ता होती, उसी को वे अपने पंच में दीक्षित कर लिया करते थे।
इसी प्रकार घूमते-घामते वे एक दिन जयपुर के उक्त विद्यालय में पहुँचे, सेठी जी से मुलाकात हुई। दोनों का रास्ता एक था, दोनों ने एक दूसरे को पहिचाना, एक दूसरे की भावनाओं को अनुभव किया और परस्पर गहरे मित्र हो गये। शर्मा जी विद्यालय में क्रान्तिकारी व्याख्यान देने लगे, जो विद्यार्थियों के हृदय में भारी उथल-पुथल मचाते थे।
शर्मा जी और सेठी जी के मुख से देश को दुर्गति का हाल सुन-सुन कर इन नवयुवकों का हृदय क्षोभ और वेदना से भरता गया। उन्होंने भारत माँ को स्वतन्त्र कराने का बोड़ा उठाया और कान्तिकारी दल में सम्मिलित होने का निश्चय किया। ग्रीष्मावकाश में बारहट जो के ग्राम में जाकर गोली चलाना, लाठो चलाना आदि की शिक्षा इन नवयुवकों ने लो और क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गये।
उस समय क्रान्तिकारी दल का काम अर्थाभाव के कारण ठप्प होता जा रहा था। अतः इन युवकों ने किसी देशद्रोही धनिक को मारकर धन लाने का निश्चय किया। बंगाल में ऐसी घटनाओं का उदाहरण इनके सामने था हो। तय हुआ कि 'निमेज' जिला-शाहाबाद (बिहार) के महन्त का धन हस्तगत किया जाये। इस काम के अगुआ थे पं० विष्णुदत्त शर्मा। अन्य लोगों में थे जोरावार सिंह, मोतीचंद, माणिकचंद और जयचंद। जोरावर सिंह ने ऐन मौके पर स्वयं न जाकर अपने एक साथी को भेज दिया। यद्यपि योजना यह थी कि 'महन्त के मुँह में कपड़ा भरकर चाबी ले ली जाये और तिजोरी से माल निकालकर भाग आया जाये।' किन्तु वहाँ जाकर इन लोगों ने महन्त को मार दिया और चाबी ले ली। दुर्भाग्य। कि तिजोरी खोलने पर वह खाली मिली। यह घटना 20 मार्च 1913 की है। घटना के बाद डकैतों की छानबीन हुई, पर कुछ पता नहीं चल सका। इधर जयपुर के विद्यालय की हालत खस्ता होने लगी थी।
इस घटना के कुछ दिनों बाद ही सेठी जी जयपुर का विद्यालय छोड़कर इन्दौर चले गये और वहाँ त्रिलोकचंद जैन हाई स्कूल में काम करने लगे। यहाँ पर उनके साथ शिव नारायण द्विवेदी नामक एक युवक भी रहता था। एक दिन अकस्मात् ही इन्दौर की पुलिस ने इस युवक की तलाशी ली तो उसके पास कुछ क्रान्तिकारी पर्च निकले। युवक को गिरफ्तार कर लिया गया, उसी से पुलिस को जयपुर के विद्यालय में संगठित क्रान्तिकारी दल तथा निमेज के महन्त की हत्या का सुराग हाथ लग गया।
इधर मोतीचंद सेठी जी के साथ रोजाना की तरह घूमने निकले। मोतीचंद ने सेठी जी से प्रश्न किया 'यदि जैनों को प्राण दण्ड मिले, तो वे मृत्यु का आलिंगन कैसे करें।' सेठी जी ने इसका उत्तर दिया ही था कि पुलिस ने घेरा डालकर दोनों को गिरफ्तार कर लिया। अब सेठी जी को समझ में आया कि मोतीचंद ऐसा प्रश्न क्यों कर रहा था। बाद में पं० विष्णुदत्त शर्मा, माणिकचंद आदि को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
अर्जुन लाल सेठी का नाम दिल्ली बम पड्यन्त्र में होने से वे सरकार की नजरों में पहले ही चढ़े थे, पर ठोस सबूत न होने से पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पा रही थी। उनके गिरफ्तार होते ही हलचल मच गई। मोतीचंद की ओर से केस लड़ने के लिए उनके मामा माणिक चंद ने सोलापूर से कुछ फण्ड इक‌ट्ठा किया। श्री अजित प्रसाद एडवोकेट से सलाह ली गई, अन्त में सेशन कोर्ट ने उन्हें फाँसी की सजा सुना दी। उच्च न्यायालय में अपील की गई पर वहाँ भी सजा को बरकरार रखा गया। पं० विष्णुदत्त शर्मा को 10 वर्ष के कालापानी की सजा मिली। अर्जुन लाल सेठी को यद्यपि सबूत के अभाव में दण्ड नहीं दिया जा सका, पर उन्हें जयपुर लाकर जेल में डाल दिया गया। विधि की विडम्बना देखिये कि जयपुर सरकार ने न तो उन्हें मुक्त ही किया और न ही उनके अपराध की सूचना ही उन्हें दी गई। अन्त में वे बेलूर जेल भेज दिये गये, जहाँ पर उन्होंने दर्शन और पूजा के लिए जैन मूर्ति न दिये जाने के कारण छप्पन दिन का निराहार व्रत किया।
मोतीचंद जी ने जेल से अपने अंतिम दिनों में रक्त से एक पत्र अपने मित्रों के नाम लिखा था। फाँसी से पूर्व जब उनकी ऑतम इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि 'प्रथम मुझे फाँसी से पूर्व जैन प्रतिमा के दर्शन कराये जायें, द्वितीय मुझे दिगम्बर (नग्न) अवस्था में फाँसी दी जाये।' पर यह जेल के नियमों के प्रतिकूल होने के कारण सम्भव नहीं हुआ। फाँसी से पूर्व उनका वजन 10-11 पौण्ड बढ़ गया था। मोतीचंद जी के एक साथी सोलापूर निवासी श्री बालचंद नानचंद शहा, जो फाँसी के समय वहाँ मौजूद थे, ने उन्हें प्रातः 4 बजे से पूर्व ही भ० पार्श्वनाथ की मूर्ति के दर्शन करा दिये थे। सामायिक और तत्त्वार्थसूत्र का पाठ मोतीचंद जी ने किया और समाधिमरण का पाठ बालचंद जी ने सुनाया था। 'Who's who of Indian Martyrs, Vol. I, Page 234' के अनुसार फाँसी की तिथि मार्च 1915 है।
1951 में व्याबर से प्रकाशित 'राजस्थानी आजादी के दीवाने' पुस्तक के लेखक श्री हरिप्रसाद अग्रवाल ने मोतीचंद के साहस के सन्दर्भ में लिखा है 'केवल एक ही घटना से उसके साहस का पता चल जाता है, जब वह क्रान्तिकारी दल का नेतृत्व कर रहा था, उन्हीं दिनों उसका ऑपरेशन हुआ, डॉक्टर की राय थी कि ऑपरेशन क्लोरोफार्म सुंघाकर किया जाये, ताकि पीड़ा न हो। किन्तु वह तो पीड़ा का प्रत्यक्ष अनुभव करने को प्रस्तुत रहता था। उसकी जिद के कारण ऑपरेशन बिना बेहोश किये ही हुआ और उसने उफ तक न की। डॉक्टर भी दाँतो तले उंगली दवाकर रह गया। फाँसी को रस्सी का उसने प्रसन्नतापूर्वक आलिंगन किया और मृत्यु के समय तक बलिदान की खुशी में उसका वजन कई पौण्ड बढ़ चुका था।' (पृष्ठ 113-114)
श्री मोतीचंद और अर्जुन लाल सेठी के अन्य शिष्यों के सन्दर्भ में प्रसिद्ध विप्लववादी श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल ने 'बन्दी जीवन', द्वितीय भाग, पृष्ठ-137 में लिखा है- 'जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने कर्तव्य की खातिर देश के मंगल के लिए सशस्त्र विप्लव का मार्ग पकड़ा था। महन्त के खून के अपराध में वे भीजब फाँसी की कोठरी में कैद थे, तब उन्होंने भी जीवन मरण के वैसे ही सन्धिस्थल में अपने विप्लव के साचियों के पास जो पत्र भेजा था, उसका सार कुछ ऐसा था 'भाई मरने से डरे नहीं, और जीवन को भी कोई साध नहीं है, भगवान् जब, जहाँ, जैसी अवस्था में रखेंगे, वैसी ही अवस्था में सन्तुष्ट रहेंगे।' इन दो युवकों में से एक का नाम था मोतीचंद और दूसरे का नाम था माणिकवन्द्र या जययंदे। इन सभी विप्लवियों के मन के तार ऐसे ऊँचे सुर में बँधे थे, जो प्रायः साधु और फकीरों के बीच ही पाया जाता है।' (इ० जैन जागरण के अग्रदूत', पृष्ठ 366-67)
कैसा आत्म-सन्तोष, कैसी निश्चिन्तता और मृत्यु के प्रति कैसी निष्कपट उपेक्षा का भाव। यह किसी जैन धर्मानुयायी में ही सम्भव है।
सेठी जी अपने इस जांबाज और वफादार शिष्य को बहुत स्नेह करते थे, इनकी मौत पर उन्हें बहुत सदमा पहुँचा। मोतीचन्द्र की पवित्र स्मृति में सेठी जी ने अपनी कन्या का विवाह महाराष्ट्र के एक युवक से इस पवित्र भावना से कर दिया था कि 'मैंने जिस प्रान्त और जिस समाज का सपूत देश को बलि चढ़ाया है, उस प्रान्त को अपनी कन्या अर्पण कर दूँ। सम्भव है उसमें भी कोई मोती जैसा पुत्ररत्न उत्पन्न होकर देश पर न्योछावर हो सके।'
मोतीचंद के जयपुर विद्यालय के सहपाठी और जेल जीवन के साथी, सम्प्रति बम्बई प्रवासी, श्री कृष्णलाल वर्मा ने 'अमर शहीद श्रीयुत् मोतीचंद शाह के संस्मरण' शीर्षक से अनेक संस्मरण लिखे हैं, जो 'क्रान्तिवीर हुतात्मा मोतीचंद' पुस्तक में पृष्ठ 45 से 73 तक छपे हैं। 'सन्मति' (मराठी) के अगस्त 1957 के अंक में भी ये संस्मरण छपे हैं। उनमें से कुछ संस्मरण यहाँ प्रस्तुत हैं।
मोतीचंद ने विद्यार्थी जीवन में, जब वे क्रान्तिकारियों में शामिल हो गये थे, पर्युषण में दस उपवास किये थे। जेल में वर्मा जी ने पूछा 'आपने उपवास क्यों किये थे?' मोतीचंद ने कहा 'ऐसा तो कोई नियम नहीं है कि राष्ट्रीय कार्यकर्ता धर्म कार्य न करें और यदि दूसरी दृष्टि से देखा जाये तो ये धार्मिक व्रत, उपवास उस कठोर जीवन के लिए तैयारी ही हैं, जो राष्ट्रीय सेवक के लिए आवश्यक हैं। राष्ट्रसेवक को, जो षड्‌यन्त्रकारी पार्टी का सदस्य हो, हर तरह की तकलीफ सहन करने की आदत डालना चाहिए। उसे भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मार या और भी सभी तरह के दुःख, जिनकी सम्भावना हो सकती है, हँसते-हँसते सहने की आदत होना चाहिए। जैनधर्म में जो बाईस परीषह बताये गये हैं, उन सभी को जो सानन्द सहता है और राष्ट्र को आजाद करने के काम में लगा रहता है, वही सत्त्वा राष्ट्र सेवक है, वही सच्चा साधु है, वही सच्चा त्यागी है।' (पृष्ठ-60)
वर्मा जी के यह पूछने पर कि महन्त के समान निर्दोष व्यक्तियों को मारने से क्या मिलता है? मोतीचंद ने कहा-'पार्टियाँ चलाने के लिए धन की जरूरत है। वह धन ऐसे व्यक्तियों से ही जबरदस्ती मारकर या लूट कर प्राप्त किया जा सकता है। यह माना कि ऐसे लोग सीधे किसी अपराध के अपराधी नहीं होते, परन्तु उनका यह अपराध क्या कम है कि वे देश के काम के लिए धन नहीं देते। अगर कोई सरकारी अधिकारी इनके पास जाता है तो बड़ी खुशी से उनके लिए थैली का मुँह खोल देते हैं, परन्तु देशभक्त की बात छोड़ो, किसी गरीब और लाचार आदमी को भी दो पैसे निकालकर देते इनकी त्योरियों पर बल पढ़ जाता है।"मैंने पूछा 'देश में लाखों धनवान तो हैं, फिर बेचारे महंत को ही आप लोगों ने क पसन्द किया?'

उन्होंने कहा-'बड़े काम को सिद्ध करने के लिए अनेक ऐसे काम भी करने पड़ जाते हैं, जिनका करना सामान्यतया अपराध या अनुचित माना जाता है। जिन्होंने राज्य स्थापित किये हैं, उन्होंने सैकड़ों ही नहीं हजारों निर्दोषों की जानें ली थीं। इतिहास इस बात का साक्षी है। परन्तु आज तक क्या किसी इतिहासकार ने यह लिखा कि उन्होंने अनुचित काम किया था। समय आयगा तब हमारे काम भी उत्तम समझे जायेंगे।' (पृष्ठ-68) (फौसी से पूर्व) मैंने (वर्मा जी ने पूछा-'अपने साथियों को या देशवासियों को कुछ सन्देश देना चाहते हैं?'
वे बोले "मेरा फाँसी पर लटकना ही मेरा सन्देश होगा। मुझे फाँसी क्यों हुई? इसका कारण जानकर देशभक्त लोग कहेंगे, 'एक निदोष मारा गया', अंग्रेज के गुलाम कहेंगे- 'जैसा किया वैसा पाया'। सम्भव है कुछ जैनी लोग कहेंगे, 'जैनियों की नाक कटवा दी।' पर जवान लोग, जिनके खून गरम हैं और जो अपनी जननी जन्मभूमि से प्यार करते हैं, कुछ न बोलेंगे, मन हो मन संकल्प करेंगे कि हम जब तक इस खून का बदला न लेंगे, अंग्रेजों को भारत से न निकालेंगे, तब तक चैन से न बैठेंगे।' उनकी यह प्रतिज्ञा मुझे स्वर्ग में भी संतोष देगी।" (पृष्ठ-72)

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